एक ओर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चैंपियन ऑफ अर्थ का पुरुस्कार ले रहे थे तकरीबन उसी दौरान स्वामी सानंद गंगा की निर्मलता के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने की तैयारी कर रहे थे। पीएम मोदी के कार्यालय में पड़ी स्वामी सानंद की चिट्ठियों का पता तो सही था लेकिन उन चिट्ठियों में जो उम्मीदें थीं वो शायद गलत थीं। क्या हुआ अगर किसी देश का प्रधानमंत्री चैंपियन ऑफ अर्थ का पुरुस्कार ले और उसी देश में एक पर्यावरणविद, उसी देश की सबसे पवित्र नदी की निर्मलता की मांग लिए 111 दिनों के अनशन के बाद मर जाए। क्या हुआ, पुरस्कार तो मिला ही।
आप अपने अंतस से कितना नाराज हो सकते हैं। इतने नाराज कि तिल तिल कर खुद को मारते रहें। मौजूदा हालात में ऐसे लोगों को तलाशना मुश्किल है जिनका अन्तर्मन औरों की वेदना को देख कर दुखी होता हो। फिर नदी, नाले, पेड़, जंगल के लिए कोई अपनी जान दे सकता है क्या? ये सोचने में भी जेहन को तैयारी करनी पड़ती है। मुश्किल से ऐसा सोचा जाता है। एक बूढ़े रिटायर्ड प्रोफेसर ने लेकिन ऐसा सोचा। न सिर्फ सोचा बल्कि किया भी। न सिर्फ किया बल्कि करते करते मर भी गया।
लोग दिन गिन रहें हैं। कितने दिन सानंद अनशन पर बैठे रहे। गिन ही रहें हैं तो गंगा के भी दिन गिन लेने चाहिए। न जाने और कितने दिन बचे हैं गंगा के। सानंद अपनी रिटायर्ड लाइफ के दिनों में 111 दिनों में अधिकतर समय एक कुर्सी पर बैठे रहे। बिल्कुल शांत। गंगा की अविरलता और निर्मलता की मांग को मन में भरे हुए।
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सड़ांध मारते सिस्टम में स्वामी सानंद को ऐसा सोचने और ऐसी उम्मीद बांधे रखने के लिए किसने कहा, पता नहीं। ऐसे में जब आप देश की सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति के उस बयान को याद करते हैं जिसमें वो कहता है कि, उसे तो मां गंगा ने बुलाया है तो सबकुछ बेहद हास्यास्पद और निराशाजनक लगता है। लोकतांत्रिक झूठ जैसा।
गंगा क्या है? एक नदी, एक संस्कृति, सनातन का आधार? फिर सिर्फ एक नदी भी मान लीजिए तो भी उसे निर्मल, अविरल रहने का अधिकार है। लेकिन हमारी मुर्दा कौम चुप रहती है। बिल्कुल चुप। उम्मीदों को मुर्दा कर देने का हुनर ऐसी चुप्पियों से ही आता है। हम सब ये हुनर सीख गए हैं इसलिए सानंद मर गए। चुपचाप।