उत्तराखंड में हुआ सियासी घटनाक्रम भारत की रीजनल मीडिया के लिए एक सबक है। उत्तराखंड में रीजनल मीडिया खासी सशक्त है और अपना प्रभाव रखती है। राजनीतिक गलियारों में मीडिया की धमक है। मीडिया चाहे तो इमेज बिल्डिंग का काम भी बेहद आसानी से कर सकती है। मीडिया ये काम करती भी आई है। राजनीतिक गलियारों में मीडिया और सरकारों की गलबहियां कोई नई बात नहीं है। लेकिन मीडिया जब अपनी सीमा रेखा को लांघ कर सरकार की गोद में बैठने की भूल करने लगे तो इमेज बिल्डिंग का काम नेता के इस्तीफे तक तो पहुंचता ही है साथ ही मीडिया की साख को भी बट्टा लगाता है क्योंकि मीडिया से लेकर नेता तक का अंतिम फैसला जनता के हाथों ही होता है।
पिछले चार सालों से उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत को लेकर राज्य की जनता में एक अजीब सी नाराजगी पनप रही थी। हालात ऐसे थे कि जनता का बस चलता तो त्रिवेंद्र रावत से तुरंत इस्तीफा लिखवा लेती लेकिन ऐसा होता कहां है? ऐसे में ये कहने की जरूरत नहीं बचती है कि त्रिवेंद्र का mass connect था ही नहीं। वो जनता के बीच लोकप्रिय थे ही नहीं। उन्हें जबरन लोकप्रिय बनाया जा रहा था। इसका ये मतलब भी कतई नहीं है कि वो इंसान अच्छे नहीं हैं बल्कि शायद वो राजनीतिज्ञ अच्छे नहीं बन पाए। या फिर मौजूदा वक्त की राजनीति को समझ नहीं पाए।
खैर मसला ये नहीं है। बात इमेज बिल्डिंग की है। ऐसी इमेज जो वास्तविकता में कहीं थी ही नहीं उस इमेज को मीडिया ने खूब बढ़ा चढ़ा कर दिखाया। रीजनल मीडिया ने त्रिवेंद्र के खिलाफ खबरें दिखाने से परहेज किया। कई ऐसे मसले हुए जिसमें रीजनल मीडिया के रिपोर्ट्स त्रिवेंद्र से सीधा सवाल तक नहीं पूछते। अगर इक्का दुक्का किसी रिपोर्टर ने पूछा तो जवाब तो नहीं ही मिलता। मीडिया को ये बात अच्छे से पता थी कि राज्य की जनता अपने मुख्यमंत्री से अपनी बात नहीं कह पा रही है। राज्य का मुख्यमंत्री क्या कह रहा है वो जनता तक पहुंच ही नहीं रहा था। इस सबके बावजूद मीडिया सबकुछ अच्छा दिखाने में पूरे मनोयोग से लगी रही।
पॉलिटिकल रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार हालात को भांप तो रहे थे लेकिन रिपोर्ट नहीं कर रहे थे। अगर रिपोर्ट कर रहे थे तो वो ‘ऊपर’ से अप्रूव नहीं हो रही थी। इससे पता चलता है कि पत्रकार, पत्रकारिता नहीं कर रहे हैं, पेट पाल रहें हैं। एक हालिया उदाहरण लेते हैं। घाट नंदप्रयाग इलाके में पिछले लगभग तीन महीनों से एक सड़क के चौड़ीकरण की मांग को लेकर स्थानीय लोग धरना दे रहें हैं। ये खबर उत्तराखंड के स्थानीय मीडिया की रिपोर्टिंग के लिहाज से बेहद अहम मानी जा सकती है। लेकिन हैरानी इस बात की है कि अखबारों ने इसे देहरादून एडिशन में कभी कभी छोटी मोटी जगह दे दी तो ठीक वरना गायब ही समझिए। अखबारों के राजधानी वाले एडिशन में ऐसी खबरों का न होना हैरान करता रहा तो न्यूज चैनलों में तो शायद ही कभी ये खबर चली हो।
रीजनल मीडिया पिछले चार सालों से इस बात की कोशिश करता रहा कि कम देखे और सिर्फ अच्छा ही देखें। हममें में से लगभग सभी ऐसे ही रहें। लेकिन इस सबके बीच फायदा किसी का नहीं हुआ, कम से कम राज्य और राज्य की जनता का तो हरगिज नहीं हुआ। राज्य के लिए बेहद महत्वपूर्ण वर्ष में मुख्यमंत्री बदला जा रहा है। बदला भी इसलिए जा रहा है कि क्योंकि उसकी पार्टी को लगता है कि वो अब चुनाव जिताउ नहीं रहा। इसलिए नहीं कि उसने जनता के लिए कोई काम नही किया। मसला काम का है ही नहीं, मसला अगले चुनावों में जीत हार का है।
रीजनल मीडिया को अपनी ताकत का ऐहसास है या नहीं ये तयशुदा तरीके से नहीं कह सकते क्योंकि त्रिवेंद्र रावत के इस्तीफे का पटकथा का एक छोटा सिरा रीजनल मीडिया से जुड़ता भी है लेकिन रीजनल मीडिया की बहुतायत अंत तक अपनी तटस्थ भूमिका में आने से डरता रहा। वो इतनी गुंजाइश बचा कर रखता है कि किसी भी ओर लुढ़का जा सके। यकीन मानिए, मीडिया का ये चरित्र अच्छा नहीं है। ये एक बीमारी है जो एक महान लोकतंत्र को खोखला कर सकती है। हमें आज से और अभी से सही को सही और गलत को गलत कहने का सामर्थ्य दिखाना होगा। हमारी सजा यही है।