
मणिकर्णिका का तिलिस्म और कालरात्रि
सुनो, मैं मणिकर्णिका हूं। कल मैंने बिस्सू भैय्या और दैय्या गुरू का किस्सा सुनाया था। यकीन मानों उसके बाद पूरी रात मैंने आसमान ताकते गुजार दी। चिता से उठते धुंए में कई बार मुझे दैय्या गुरू का अक्स बनते दिखा। दरअसल इसकी वजह ये है कि कई बार रूहें मुक्त हो जाने के बावजूद यहीं मेरे इर्द गिर्द रहना चाहती हैं। उन्हें मेरी माटी से मोहब्बत हो जाती है। उन्हें महादेव से ऐसी आशिकी हो जाती है कि वो फिर यहीं की होकर रह जाती हैं। उन्हें आसमान गवारा नहीं होता। मेरा मुक्तागंन उन्हें भा जाता है। बहरहाल, वैसे तो मेरी सीढ़ियों पर हर रोज ही मृत्यु का जश्न मनाया जाता है। तमाम क्रियाएं की जाती हैं। महाश्मशान की इस भूमि पर जीवन के लिए मंगलकामना की जाती है। लेकिन दीवाली की रात तो यहां गजब होती है। तुम तो जानते हो कि इस रात को कालरात्रि कहा जाता है। अमावस की इस रात में आसमान से फरिश्तों की बारात मेरे आंगन के लिए निकल पड़ती है। तमाम ग्रह-नक्षत्र, देवी-देवता, भूत-पिशाच-जिन्नात, कापालिक – तांत्रिक, यक्ष – यक्षिणी, डाकिनी-शाकिनी-भैरवी, भटकती आत्माएं, रूहें और किन्नर टोलियों में यहां सांझ ढलने के साथ जमा होने लगते हैं। आधी रात के बाद यहां होता है जलसा। इस जलसे में होने वाली समस्त तांत्रिक क्रियाओं का संचालन करते हैं स्वयं अघोरेश्वर महादेव।
तुम मेरी बात सुन रहे हो ना ? हां… हां मैं मणिकर्णिका ही हूं। शाम को बाबा मसान नाथ की आरती के बाद से ही दुनिया भर से आये कापालिकों की टोली यहां रास खेलने लगती है। जलती चिताएं, टिकटी पर रखे मुर्दे, अपनी रोजमर्रा की जिंदगी की परेशानी के कारण खुद के शरीर को लाश की तरह ढोते फिर रहे तथाकथित जिंदा लोग। और इन सबके बीच मदमस्त होकर मंडराते तमाम मायावी। रात ढलने के साथ इनकी बेखुदी जवान होने लगती है। मैं भी इनके सम्मोहन में बंधी इन्हें अपलक देखती रहती हूं। रात में बारह का डंका बजने के साथ ही पूरी महफिल अपने शबाब पर आ जाती है। वैसे तो दीवाली की रात लक्ष्मी पूजन की रात होती है। इस रात तुम सब अपने घरों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को दीये से सजाते हो। लक्ष्मी का आव्हान कर उनसे अपने घर में बस जाने की प्रार्थना करते हो। गोधूलि बेला को मंगलकारी मुहूर्त मानते हो लेकिन महाश्मशान में सारी चीजें इससे बिल्कुल उलट होती हैं।
इस अहोरात में ठीक बारह बजे बाबा मसाननाथ का घंटा बजने लगता है। आसपास के मंदिरों के घंटे भी जोर जोर से बजने लगते हैं। डमरू और नगाड़ों का जबर्दस्त निनाद होता है। उनके बीच उठता हर हर महोदव का जयकारा। इस बीच तमाम कापालिक अपने हाथों में लिये मानव खोपड़ियों को उलट चुके हैं। इन खोपड़ियों में जलते दीये की लौ तेज और तेज होती चली जा रही है। अपने में मगन सबके सब कापालिक आरती कर रहे हैं। पहली बार में शायद किसी को यह माया समझ में आये ही नहीं। लेकिन जब चिताओं को घेर कर नाचते कूदते इन लोगों के बीच पिनाकी शम्भू अवतरित होते हैं तो पूरा मंजर आसमानी हो जाता है।
तमाम देवी देवता और फरिश्ते अपनी जगह से उठ कर खड़े हो गये हैं। हाथ जोड़े सारे लोग अघोरेश्वर का दीदार कर रहे हैं। क्या जमीन और क्या आसमान। क्या सितारे और क्या तमाम ग्रह नक्षत्र। सब उस लमहे को अपनी आंखों में जैसे बसा लेना चाहते हों। मेरा यकीन मानों मैं सच कह रही हूं। इस नाद को पहली बार सुनने के बाद ही मुझे नाद ब्रह्म का बोध हुआ। अनहद नाद के रहस्य को भी मैंने तभी जाना। मैं आज जब तुमसे यह सब कह रही हूं मेरा विश्वास करो मेरे रोम रोम खड़े हो गये हैं। चलो आज तुम मुझसे इस पूरे रहस्य को सामने घटित होते किसी घटनाक्रम की तरह सुन लो।
करीब चालीस मिनट तक चलने वाली इस आरती के बाद पूरे माहौल में अचानक सन्नाटा तारी हो गया है। सब चुप हैं। तभी अचानक आनंद स्वरूप शम्भू अघोरियों की अपनी मंडली को कुछ इशारा करते हैं। और यहां शुरू हो जाता है… हा हू ही हई… की अजीब सी ध्वनि। एक सुर में निकलती यह ध्वनि कापालिकों की है। वो इस कायनात में भटक रही तमाम रूहों को पुकार रहे हैं। हा हू ही के बीच वो जलती हुई चिताओं में ओम फट, ओम फट कहते हुए हवि दे रहे हैं। देर तक के प्रयास के बाद पूरे माहौल में अचानक से अजीब सी अलग अलग तरह की गंध भर गयी है। धूप, लोभान, घृत और इत्र का प्रचुर मात्रा में प्रयोग भी माहौल में व्याप्त हो गये गंध को हल्का नहीं कर पा रहा है। वैसे तो यहां अब भी पहले जितने ही लोग हैं लेकिन अचानक ऐसे लग रहा है जैसे भारी भीड़ जमा हो गयी हो। इस भीड़ को महसूस करो। ये भटकती आत्माओं की भीड़ है। ये महक भी इन रूहों की है जो न जाने किन कारणों से मोक्ष न मिलने पर यायावर होकर रह जाने को मजबूर हैं। इनसे आ रही अच्छी और बुरी गंध उनके कर्मों, उनकी अच्छी बुरी प्रवृत्ति और दुर्मर्ण के कारण है।
अब कापालिकों की मंडली अपने खप्परों में मदिरा भर कर बाबा मसान नाथ को भोग लगा रही है। वो उसकी कुछ मात्रा चिताओं पर आहुति के रूप में भी दे रहे हैं। सब कुछ भगवान शिव शंकर के निर्देशन में हो रहा है। हर वक्त पलकें नीची किये रहने वाले ये कापालिक और तांत्रिक महादेव के इशारे को जानने के लिए एकाध बार अपनी पलकें उठा भी ले रहे हैं। अपने देव को एक निगाह भर देख लेने मात्र से उनकी आंखों में जैसे नशा उमड़ रहा है। डाकिनी, शाकिनी और भैरवियों की टोली भी इस पूरे कर्मकांड में अपने आकाओं की मदद को तत्पर दिख रही है। अरे, यह क्या ? सदाशिव ने अचानक हाथ उठा कर संकेत दिया और मेरी इस भूमि पर धड़धड़ बलि दी जाने लगी है। नहीं, नहीं किसी पशु या पक्षी की नहीं। ये बलि नींबू और नारियल की है। आज मैं मणिकर्णिका तुमसे जो कुछ भी कह रही हूं उसे सच जानों। फरिश्तों की दुनिया में पशु पक्षियों या नर बलि का कोई विधान है ही नहीं। देवताओं को यह सब कभी रास नहीं आता। शास्त्र में भी ऐसा कुछ नहीं लिखा है कि अमुक काम के लिए अमुक की बलि दी जाए। बलि तो ईश्वर के प्रति समर्पण का प्रतीक है। और ईश्वर अपनी बनायी कृति की बलि कभी नहीं चाहता। समर्पण के प्रतीक के रूप में सिर्फ नारियल, कोहड़ा और नींबू की बलि देने का ही विधान है।
इन बलियों के बीच यहां एक भयानक कोलाहल है। वैसे तो सब शांत चित्त से अपने विरूपाक्ष महादेव को निहार रहे हैं लेकिन माहौल में एक शोर विस्तार पा रहा है। इस रहस्य को समझो। ये शोर उन आत्माओं का है जो आज यहां से विदा हो रही हैं। वो अपने प्रियजनों का नाम ले कर चिल्ला रही हैं। वो उन्हें इस कायनात से अपनी रवानगी की सूचना देना चाह रही हैं। वैसे तो ये रूहें जानती हैं कि उनकी आवाज अनसुनी ही रहेगी लेकिन उनके इस प्रयास को देखो। अतृप्त आत्माओं के इस दर्द को जरा महसूस करो। देहत्याग के बाद से प्रेत योनी में भटकती ये रूहें अपने प्रियजनों के लिए मां, बाप, भाई बहन, बेटा या बेटी न होकर अमुक नाम प्रेतस्य हो कर रह गयी थीं। शरीर छोड़ने के बाद से उनके सारे नाते महज प्रेत बन कर रह गये थे। आज जब स्वयं औघड़दानी उन्हें इस योनि से मुक्ति दान कर रहा है तो उनकी प्रसन्नता का पारावार नहीं है। इसे भाग्य कहें या दुर्भाग्य समझ में नहीं आ रहा है। बरसों बरस प्रेत योनि में भटकाव के बाद स्वयं महादेव के हाथों मोक्ष पाना कितना सौभाग्य है।
सुनों मैं तुमसे फिर कह रही हूं। मैं मणिकर्णिका हूं। काशी में ये सब महज इसलिए है क्योंकि यहां मेरा वजूद कायम है। मेरी जो दुनियां यहां तुम देखते हो वो बेशक मुर्दों की है। जीवन के पूर्णाहुति की है। फना की है। मतलब सब कुछ खत्म हो जाने की है। लेकिन मेरे कहे को सच जानों। बका यहीं वजूद पाती है। बका यानि अनश्वर रूप से फिर कायम हो जाना। ये देखो कि तमाम रूहों को जन्म मरण के चक्र से मुक्त करने के लिए मेरी इस भूमि पर स्वयं महादेव चौबीस घंटे एक पैर पर खड़े रहते हैं। चिता भस्म लपेटे महादेव को शव से प्यार है। क्योंकि शव में उन्हें स्वयं का यानि शिव का अक्स दिखायी देता है। यह शव शिव ही जीवन का सत्य है। और ये शिव मुझ मणिकर्णिका पर आसक्त हैं।
(अगले अंक में – मणिकर्णिका पर नगर वधुओं का नृत्य और चिता भस्म की होली )
यह आलेख काशी के निवासी वरिष्ठ पत्रकार विश्वनाथ गोकर्ण द्वारा लिखित काशी रहस्य नामक फेसबुक पेज से लिया गया है। काशी रहस्य नामक यह लेखमाला शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली एक कॉफी टेबुल बुक का संक्षिप्त हिस्सा है। इस लेख में प्रयोग हुईं तस्वीरें काशी के ही प्रख्यात फोटोग्राफर मनीष खत्री के द्वारा लीं गईं हैं। इस लेख के पुर्नप्रकाशन हेतु सहमति ली गई है। आप इसे पुर्नप्रकाशित न करें। आप इनके फेसबुक पर इस लिंक के जरिए पहुंचकर पेज को लाइक कर सकते हैं – Kashi Rahasya