
सुनो, मैं मणिकर्णिका हूं !!!
रूप बदलती भैरवी और बाबा मसान नाथ के साधक…
सुनो, मैं मणिकर्णिका हूं। उस दिन मैंने तुम्हें अपनी इस धरा के अदब आदाब के बारे में बताया था। मैंने तुमसे ये भी कहा था कि मेरी मिट्टी में मिल जाना ही तुम्हारे इस नश्वर जीवन का सत्य है। कहा तो ये भी था कि मेरे इस परिक्षे़त्र में तुम जो कुछ भी या जिस किसी को भी देखते हो उसे उसकी सचाई मत समझना। मेरा यकीन मानों महादेव के अलावा मेरे तिलिस्म को कभी कोई समझ ही नहीं सकता। इसे मेरा अहंकार मत समझना लेकिन आज यह बताते हुए खुद मुझे सिंहरन हो रही है कि मैं मणिकर्णिका स्वयं सहस्रों कापालिकों का वजूद हूं। सहस्रों तांत्रिकों की आत्मा हूं। उन सहस्रों भटकती आत्माओं की पोषक हूं जिन्हें मुक्ति दिलाने के प्रयास में स्वयं महादेव न जाने कितनी आहुतियां देते हैं। वो औघड़दानी हर लमहा मेरे साथ सदानीरा के इस तट पर बैठे आहुति के रूप में आने वाले शवों की प्रतीक्षा करते हैं। तुम्हें शायद इस बात का अहसास तक न हो कि महादेव यहां आने वाले हर शव को देख कर उनके सम्मान में खड़े हो जाते हैं। राम नाम सत्य है का नाद सुन कर जब वह भी वही बोलने लगते हैं तो उनकी आंखों के कोर गीले हो जाते हैं। शव के साथ सीढ़ी उतरते लोगों का हुजूम देख कर उनका डमरू डिम डिम बजने लगता है। जानते हो क्यों ? क्योंकि सदाशिव को हर शव में अपना अक्स दिखायी देता है। वो हर शव में अपने प्रतिम्बिब का अहसास करते हैं। शव बन कर मणिकर्णिका आये शख्स की रूह को स्वयं महादेव मोक्ष प्रदान करते हैं। कुल में लौटी उस आत्मा का स्वयं आशुतोष स्वागत करते हैं।
सृष्टि पर अपना वक्त बिता कर लौटे लोगों को तो महादेव तुरंत आत्मसात कर लेते हैं लेकिन जिन लोगों के कालावशेष बाकी रह जाते हैं उनके लिए भी महेश्वर अपने पंथियों के जरिये अघोर साधना से मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते हैं। ये अघोरी वैसे तो पिनाकी शम्भू के अनुयायी हैं लेकिन इनकी साधना अत्यंत तामसी है। अत्यंत कठिन है। ये अघोरी अपने देव विरूपाक्ष से हर लमहा सम्मोहित रहते हैं। हर वक्त बेखुदी में रहते हैं। उन्हें अपने आसपास का भान तक नहीं होता। वो हमेशा दीन दुनिया से विरक्त रहते हैं। जमीन को बिस्तर की तरह बिछाते हैं और आसमान ओढ़ कर सोते हैं। इन अघोरियों की जिस्म पर कपड़े नहीं हमेशा चिता भस्म होता है।
मेरा यकीन मानों मेरे तट पर ऐसे न जाने कितने कापालिक हैं जो भोजन के नाम पर जलती चिता में हाथ डाल कर शव भक्षण करते हैं। मुखाग्नि देने के बाद सीढ़ियों पर बैठ कर शवदाह के खत्म होने का इंतजार कर रहे परिजनों को खबर भी नहीं लगती कि चिता इतनी जल्दी ठंडी कैसे हो गयी। उन्हें क्या पता कि नजरें चुरा कर कापालिक ने अपना काम कर लिया है। मैंने उस दिन तुमसे कहा था ना कि यहां शव को लेकर आने वाले भी शव और शवदाह करने वाले भी शव। ये मुर्दों की दुनिया है।
यहां अगर कोई ऐसा कुछ होते देखता भी है तो यहां का तिलिस्म उसकी आंखों पर पर्दा डाल देता है। उस एक लमहे भर के लिए उस शख्स की मति को कुछ इस तरह से दिगभ्रमित कर दिया जाता है कि उसे इस तरह की किसी रहस्यात्मक घटनाक्रम के घटित होने का अहसास ही नहीं हो पाता।
सुनों, मैं तुमसे फिर कह रही हूं कि मैं मणिकर्णिका हूं। मेरे तट पर ही आज भी रहते हैं बिस्सू साहनी। जाति से मल्लाह हैं। हर रोज अल सुबह नैय्या लेकर गंगा में निकल जाते हैं। कभी सैलानियों को लोटा, लोटिया, काशी के मंदिरों की फोटो या अन्य पूजा पात्र बेचते हैं तो कभी लोगों को उगते हुए भगवान भास्कर का दीदार कराते हैं। बिस्सू उन लोगों में से एक हैं जो चिता के साथ दिन रात जलते हुए माहौल में पैदा हुए। जलते हुए मांस की गंध से इनकी इतनी राबिता है कि हमारी चौहद्दी से बाहर की गंध में इन्हें महक आती है। राम नाम सत्य है कि टेर न सुनें तो इन्हें रात में नींद नहीं आती। अब तो नये जमाने का दौर है वरना पहले इनकी अम्मा ठंडी हो रही चिता से कोयला बटोर कर अपने घर की अंगीठी सुलगाती थीं। बिस्सू अघोरी तो नहीं हैं लेकिन मेरे यहां स्थापित बाबा मसान नाथ के यहां नियमित रूप से हाजिरी लगाने वालों में से हैं। एक दिन उन्हें पता नहीं क्या सूझा काफी रात गये वक्त में बाबा से कुछ तिलिस्म दिखा देने की अर्ज कर बैठे। बाबा मसान नाथ बहुत जाग्रत देव हैं।
यकीन मानों बरसों पुराना यह वाकया मेरी आंखों के सामने जैसे अभी तुरंत घटित हो रहा है। बिस्सू ने मन में कहा और बाबा ने पलक झपकते ही सब कुछ हाजिर कर दिया। वहां बैठे एक अघोरी ने पास में बैठ कर सूखे फूल चबा रही एक बकरी की तरफ एक चुटकी राख उछाल दी। वो राख बाबा के मंदिर में दिन रात जलने वाले उस अग्निकुंड की थी जिसमें सिर्फ जलती हुई चिता से लायी गयी लकड़ी ही सुलगायी जाती है। राख का उस बकरी पर पड़ना था कि वो पलक झपकते ही एक खूबसूरत षोड़षी कन्या की शक्ल में तब्दील हो गयी। बिस्सू के रोंगटे खड़े हो गये। उस कन्या को अघोरी के कदमों में गिरते देख उसके पैर कांपने लगे। पूरे जिस्म में सिंहरन होने लगी। बिस्सू महादेव… महादेव… चिल्लाते हुए घर की तरफ भागा और फिर वहां पहुंच कर बेहोश होकर गिर पड़ा। उसे बुखार आ गया। कई दिनों तक बेखुदी के आलम में रहने के बाद वो सामान्य हो सका।
दरअसल वो कन्या उस तांत्रिक की भैरवी थी। वशीकरण के जरिए वह उस षोड़षी को भैरवी बना कर अपना काम सिध्द कर रहा था। ये भैरवियां कापालिक के लिए इस सृष्टि में विचरने वाली तमाम आत्माओं से सम्पर्क का माध्यम बनती हैं। भैरवी अपने तांत्रिक के लिए हर वह काम करती है जिसे वो कराना चाहता है। तिलिस्मी दुनिया में कर्ण पिशाच सिध्द करने से लेकर किसी का भी काम तमाम करने तक का सारा काम भैरवी के जरिए ही किया जाता है। बिस्सू इन सबसे अनजान थे और वो सब देखने की मांग कर बैठे जिसे देखने की बर्दाश्त उन्हें महादेव ने दी ही नहीं थी।
ऐसा ही कुछ गायघाट के रहने वाले दैय्या गुरू के साथ हुआ था। दैय्या गुरू अच्छे खासे व्यापारी थे। जाति से सारस्वत ब्राह्मण दैय्या गुरू की खासियत थी कि यदि उन्हें किसी के मरने की खबर मिल जाति तो वे सारा काम छोड़ कर चल देते उस व्यक्ति के घर। उनसे इस बात का कोई लेना देना नहीं था कि मरने वाला किस जाति का है। उससे या उसके किसी परिजन से उनकी जान पहचान है या नहीं। वो चाहे जितनी भी दूर से सूचना आती तुरंत निकल पड़ते उस घर की तरफ। वहां पहुंच कर सिर्फ इतना पूछते कि मरने वाला पुरूष है या स्त्री। इसके बाद वो जैसे सारा काम अपने जिम्मे उठा लेते। परिवार यदि शवदाह में सक्षम है तो ठीक, नहीं है तो दैय्या गुरू एक एक पैसा अपनी जेब से लगा देते और किसी को कानों कान खबर तक नहीं हो पाती। माथे पर लाल अबीर लगा कर शवयात्रा में दैय्या गुरू सबसे आगे चलते। राम नाम सत्य है में सबसे बुलंद आवाज उन्हीं की होती।
दैय्या गुरू को मणिकर्णिका से जैसे इश्क हो गया था। वो हजारों हजार शव के साथ यहां आये। उन्हें यहां के हर उस शख्स से मोहब्बत हो गयी जो सदाशिव के यज्ञ में आहुति देने में लगा हुआ था। सब उनको जानते थे और वो यहां सबको जानते थे। उनके यहां पहुंचते ही सब हट बढ़ जाते थे जैसे कोई शिवशंकर का दूत आ गया हो। मैं स्वयं भी उन्हें देख सिहर उठती थी। खुद चिता सजाते। उस पर पार्थिव देह रखते। मुखाग्नि दिलवाते। जाने वाले को ऐसे विदा करते जैसे उससे उनका बरसों बरस पुराना नाता रहा हो। कई बार मैंने उन्हें जलती चिता के किनारे खड़े होकर बेतरह रोते देखा था। दैय्या गुरू को महाश्मशान से इतना प्रेम हो गया कि एक उम्र के साथ वो वक्त बेवक्त यहां आकर बैठे रहने लगे। उसी दौर में एक रात उन्होंने इस भूमि पर कुछ ऐसा मंजर देखा कि वो फिर वापस यहां से जा ही नहीं सके। जलती चिता के इर्द गिर्द रास खेलती एक टोली को देख दैय्या गुरू के मन में विरक्ति आ गयी। ऐसा वैराग्य आया कि वो भरापूरा परिवार छोड़ कर औघड़दानी की मंडली में शामिल हो गये। वो भी जीते जी। देर रात में हुई यह एक ऐसी रहस्यमय घटना थी जिसकी चश्मदीद गवाह सिर्फ मैं अकेली थी। इस रात के बाद से दैय्या गुरू पूरे दिन बाबा मसान नाथ के दरबार में निर्वस्त्र पड़े रहते। बेखुदी में वो न जाने क्या जपते रहते थे। जैसे कोई साधक शव बन कर शिव में विलीन हो जाए ठीक उसी तरह वो जीते जी शिव में समा गये थे। यह बताते हुए मेरी आंखों का खारापन उमड़ आया है कि एक लम्बे वक्त के बाद मैंने स्वयं आगे बढ़ कर दैय्या गुरू का हाथ थाम लिया। उस दिन जब दैय्या गुरू की चिता जल रही थी तब यहां वास करने वाली तमाम डाकिनी-शाकिनी, कापालिक-भैरवी और अघोरी अपनी शक्लें बदल कर यहां हाजिर थे। रात इन सब लोगों ने मिल कर फिर वही रास खेला था जिसे देख कर दैय्या गुरू का इस सांसारिक जीवन से जी उचाट हो गया था।
सुनों, मैं फिर कह रही हूं कि मैं मणिकर्णिका हूं। तंत्र साधना की केन्द्र हूं। मैं पोसती हूं इन कापालिकों को। डाकिनी, शाकिनी और भैरवियों की पनाहगार हूं मैं। शव बन कर यहां आने वाले हर शख्स के शिव बनने तक के हर उस लमहे की मैं गवाह हूं जिसमें उसके जीवन की पूर्णाहुति होती है। मैं वो हूं जो किसी साधक को उसके मुकाम तक पहुंचा कर चमत्कारिक सिध्दी प्रदान करती हूं। मैं हर शव को प्रिय हूं। इसलिए शिव भी मुझ पर आसक्त हैं। मैं मणिकर्णिका हूं। सबको अपने में समा लेने को आतुर। सबको मुक्त कर देने को व्याकुल। सबको उसके कुल तक पहुंचा देने को अधीर। मैं मणिकर्णिका हूं।
(अगले अंक में – मणिकर्णिका का तिलिस्म और कालरात्र )
यह आलेख काशी के निवासी वरिष्ठ पत्रकार विश्वनाथ गोकर्ण की फेसबुक वॉल से लिया गया है। काशी रहस्य नामक यह लेखमाला शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली एक कॉफी टेबुल बुक का संक्षिप्त हिस्सा है। इस लेख में प्रयोग हुईं तस्वीरें काशी के ही प्रख्यात फोटोग्राफर मनीष खत्री के द्वारा लीं गईं हैं। आप इनके फेसबुक पर इस लिंक के जरिए पहुंचकर पेज को लाइक कर सकते हैं - Kashi Rahasya