
सुनो, मैं मणिकर्णिका हूं !!!
यहां हर सूरत में छिपी है कापालिक की भैरवी…
सुनो, मैं मणिकर्णिका हूं। दिन रात जलती हूं। मेरी बांहों में हर वक्त सिमटा रहता है मुर्दों का ढेर। अनगिनत लाशें। चारों तरफ सिर्फ शव ही शव। वैसे तो मेरा विस्तार बहुत ज्यादा होना चाहिए लेकिन मेरी एक हद है। सृष्टि के रचयिता ने जब काशी नगरी बनायी तो इसका नाम आनंद वन रखा। कहा कि जो यहां मृत्यु को प्राप्त होगा उसे मोक्ष मिलेगा। काश्यां मरणान् मुक्ति की उक्ति भी उनकी ही है। मेरी शान में इससे आगे बढ़ कर कसीदे काढ़े गये। मरणं यत्र मंगलम कहा गया। वस्तुतः यह सब काशी के लिए नहीं है। यह तो सब इसलिए है क्योंकि इस नगरी में मेरा वजूद कायम है। क्योंकि मैं मणिकर्णिका हूं। क्योंकि देवाधिदेव महादेव मेरे ही तट पर हर रूह को देते हैं तारक मंत्र का उपदेश। क्योंकि मैं सदाशिव शिव को अत्यंत प्रिय हूं। क्योंकि शव ही शिव हैं और शिव ही सत्य हैं। ऐसे में इस अखंड काशी पर सम्पूर्ण रूप से मेरा ही हक है। यहां चाहे जहां शव दाह कर दो, शरीर त्यागने वाली आत्मा को मोक्ष मिलना निश्चित है। लेकिन सभ्यता की भी अपनी एक मर्यादा होती है। यही वजह है कि मैंने अपनी हद अनादिकाल से गंगा तीरे ही बांध रखा है। वैसे तो सृष्टि कर्ता ने काशी के संकल्प में लिख कर विधान भी बना रखा है… आनंद वने महाश्मशाने, त्रिकंठक विराजते, भागीरथ्याहा पश्चिमे तीरे…
अब मेरी विडम्बना देखो कि भागीरथी के तट पर होने के बावजूद अनादिकाल से जलती चली आ रही हूं। मेरी अग्नि की ज्वाला ठंडी हो ही नहीं पाती। क्योंकि मेरी आगोश में मुर्दों के जलते रहने से इस काशी के तिलिस्म का वजूद जिंदा है। हर रोज कम से कम तीन सौ शवों की हवी लेने के बावजूद मृत्यु के प्रति मेरी हवस अर्वाचीन काल से आज तक कम नहीं हो पायी। सुनों, जरा इस अहसास को समझो तो सही। मेरे यहां आने वाले हर शव का लमहे भर पहले तक कुछ ना कुछ नाम रहा होगा। वो किसी का बाप या मां रही होगी। हो सकता है वो किसी का इकलौता नौजवान बेटा या बेटी हो। ये भी हो सकता है कि वो किसी का प्रियतम पति या प्रियतमा पत्नी हो लेकिन मेरे लिए वो सिर्फ एक शव है। एक मिट्टी। एक पार्थिव देह। अब मेरे इस दर्द को जरा महसूस करो कि मुझे वो शख्स कौन था ये नहीं मालूम। वो कहां से आया था या परवाज करने के बाद उसकी रूह कहां गयी इस रहस्यमय गुत्थी को भी मैं आज तक बूझ नहीं पाया। लेकिन क्या तुम मेरे दुख को समझ सकते हो कि मुझे इस शख्स को लिए नौ मन लकड़ी के साथ जलना पड़ता है।
कम से कम तीन घंटे। ठीक है उसकी चिता में बेशक चंदन डाला गया होगा। राल भी पड़ा होगा। लोभान से लेकर शुध्द घी की हवी भी दी गयी होगी। लेकिन क्या तुम्हें अंदाज है कि जलते हुए मनुष्य के मांस की गंध मुझे कितनी पीड़ा देती होगी। सुनों ये जो तुमने अपने परिजन के शव को जलाने के लिए चिता में जो कुछ भी डाला है न, उससे उस शख्स के रोम रोम के जलने की गंध जरा भी कमतर नहीं हुई।
तुम्हें पता है, आग में इंसानी देह के एक एक रोंए के जलने से भयानक आवाज आती है और चड़चड़ाहट से भरी वो आवाज मुझे अंदर तक हिला जाती है। फिर यहां तो अनगिनत लाशें हैं। शवों की कतार है। मुझे तो यहां मुर्दों को लेकर आये लोग भी मुर्दे जैसे प्रतीत होते हैं।
मुर्दों के साथ आये मुर्दे। लाश को ढो कर लाती लाशें। शवों को जलाने का सामान बेचते शव। शव को जलाने का फर्ज अदा करते शव। यहां सब कुछ होता रहता है अपने आप। यंत्रवत। सब शव हैं इसलिए सबके सब बेमुरव्वत। पैसे को लेकर होने वाली जिच भी है। इन सबको देखने के बाद खुद के जिंदा होने पर से यकीन उठ जाता है। इसे क्षणिक रूप से होने वाला श्मशान वैराग्य न समझना। फिर कह रही हूं कि मैं मणिकर्णिका हूं। यह मेरे यहां का दस्तूर है। एक रवायत है। मेरे पास आने वाले हर शख्स को शव बन कर ही आना होता है। दोहरा रही हूं कि शव ही शिव है और शिव ही सत्य है।

तुम्हें पता है, राम नाम सत्य है का यहां दिन रात चलने वाले सम्पुट में मुझे अनहद नाद सुनायी देता है। आशुतोष भगवान शिव अक्सर यहां चले आते हैं अपने ही बजाये इस निनाद को सुनने के लिए। अक्सर आधी रात के बाद वो अपने साथ उन अघोरियों को भी लेकर चले आते हैं जिन्हें उन्होंने अघोर मंत्र की दीक्षा देकर अपने पंथ में शामिल कर लिया है। ये अघोरी भी अजीब हैं। वो सब अपने साथ लेकर आते हैं डाकिनी, शाकिनी, भैरवी, कापालिक और न जाने किस किस को। अजीब अजीब हरकतें करते हैं वो सब। तुम्हें यह सब बताते हुए मुझे सिंहरन हो रही है कि मेरी चौहद्दी में जलती चिताओं के बीच घूमने वाली गायों, बकरों या कुत्तों की शक्ल पर कभी मत जाना। उनकी सूरत को हकीकत मत समझना। सिर्फ गौर करना उनकी हरकतों पर। मेरा यकीन मानों थोड़ी देर बाद तुम्हें इस बात का अहसास होने लगेगा कि ये सब के सब वस्तुतः वो हैं ही नहीं जो तुम उन्हें समझ रहे हो। दरअसल वो सबके सब किसी कापालिक की भैरवी हैं जिन्हें उस मायावी ने अपने किसी खास उद्देश्य से गाय, बकरा या कुत्ता बना कर इस महाश्मशान भूमि पर छोड़ रखा है। उन्हें अपनी तंत्र साधना का माध्यम बना रखा है। मेरे कहे को गंभीरता से लेना अगर मणिकर्णिका से तुम्हारी कभी गुजर हो तो इन सबसे सलीके से पेश आना क्योंकि उन पर सतत नजर जमाये बैठे कापालिक को उनके साथ तुम्हारा गैर सलीके से पेश आना नागवार गुजर सकता है। जानवर ही नहीं मेरी परिसीमा में तुम्हें कई बार अजीब अजीब सी इन्सानी शक्लें भी दिखेंगी। उनसे भी थोड़ी दूरी बरतना। क्योंकि रूप बदलने वाले ये साधक वहां अपनी साधना में लीन होंगे। तुम्हें बता दे रही हूं कि इन तांत्रिकों को साधना में खलल कतई बर्दाश्त नहीं है।
(अगले अंक में-रूप बदलती भैरवी और बाबा श्मशान नाथ के साधक )
यह आलेख काशी के निवासी वरिष्ठ पत्रकार विश्वनाथ गोकर्ण की फेसबुक वॉल से लिया गया है। काशी रहस्य नामक यह लेखमाला शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली एक कॉफी टेबुल बुक का संक्षिप्त हिस्सा है। इस लेख में प्रयोग हुईं तस्वीरें काशी के ही प्रख्यात फोटोग्राफर मनीष खत्री के द्वारा लीं गईं हैं। आप इनके फेसबुक पर इस लिंक के जरिए पहुंचकर पेज को लाइक कर सकते हैं - Kashi Rahasya