सत्यदेव त्रिपाठी। कोरोना की बन्दी शुरू हुई, तब से ही हमारे कलाजगत से छिटफुट आवाजें आ रही थीं कि सरकार को कलाकारों की मदद करनी चाहिए…प्रदर्शन (शोज़) बन्द हो गये हैं, उन पर बड़ा संकट है। कुछ साहित्यिक-सामाजिक संगठन थोड़ी-बहुत मदद की योजनाएं लेकर सामने भी आये हैं। कुछ तो राहत हुई ही होगी। इस प्रयत्न में सबसे अधिक मज़ाकिया (फनी) रही बिहार सरकार की हजारी वाली तुग़लकी योजना। न जाने इसी सबका परिणाम रहा या काफी पहले से तैयारी का नतीजा, लेकिन पिछले दो जून को पूर्व घोषणा और एक निश्चित कार्यक्रम के साथ जिस तरह ‘सूने साज, सुने सरकार’ नाम से तरह-तरह के पोस्टर बना-बना के कलाकार लोग देश भर में सामूहिक प्रदर्शन करते हुए दिखे, उससे समानांतर रूप से कुछ मूलभूत और वस्तुगत सवाल उठते हैं…।
जब से कोरोना महामारी का संकट दरपेश हुआ है, तमाम रोज़गार बन्द हैं। छोटी-बड़ी निजी नौकरियों-धन्धों वाले लोग बेरोज़गार होकर बेकार हो गये हैं। बतौर उदाहरण सड़क की पटरियों-नुक्कड़ों पर लगी पान व चाय की टपरियों को लें – कितना बड़ा संसार था इनका!! कोई बड़ी पूँजी नहीं, इतनी बड़ी कोई प्राप्ति नहीं। लेकिन लाखों-करोड़ों लोगों का जीवन चल रहा था…! कलाकारों के मुकाबले बहुत बड़ा वर्ग है इनका, जो पूरी तरह ठप हो गया है। कोरोना के समूल उन्मूलन के पहले कोई मौका नहीं इनके खुलने के, न डिलिटल जैसे कोई विकल्प। लेकिन वे लोग सरकार के सामने इस तरह प्रदर्शन नहीं कर रहे हैं। तो इन कलाकारों में सचमुच ऐसा क्या ख़ास है, जो इस तरह अपना दावा जता रहे हैं। क्या इसलिए कि वे कुछ पढे-लिखे हैं और उनका माध्यम ही प्रदर्शनपरक है, जिसके बूते उन्हें ऐसा करना आता है…? या इसलिए कि वे बाकी सबसे कुछ अलग और विशिष्ट हैं? आख़िर वे खुद को सरकार की इतनी महती व अ-निवार्य जिम्मेदारी क्यों मानते हैं?
क्या इसलिए कि उनके ऊपर समाज को दिशा देने और बदलने का ठप्पा लगा हुआ है? इसी को ख़ासियत बनाकर ‘इस सदन में मैं अकेला ही दिया हूँ, मत बुझाओ। जब मिलेगी रोशनी मुझसे मिलेगी’…आदि जैसी सूक्तिवत पंक्तियों से कलाकारों को एक उदात्त गौरव देकर अलग दर्ज़ा दे दिया गया है। लेकिन माफ़ कीजिए कि आज ऐसा कुछ नहीं है। कभी था, जब दिन भर पालकी-बहँगी ढोकर, कहाँर लोग रात भर कहँरवा नाच-गान करते थे। और खोइंछा में कुछ अनाज या फटे-पुराने कपडे-रजाई-चादर पा लेते थे। मैं यह नहीं कहता कि आज भी ऐसा ही हो, लेकिन तब वे आम रोज़गारियों से भिन्न थे। उनके जैसी मेहनत-मशक्कत करने के बाद भी कुदरतन या इरादतन वह सब करते थे – पता नहीं स्वांत: सुखाय या लोक रंजनाय, जिसका उन्हें पता तक न था, पर वे करते थे…और तब इसीलिए सबसे अलग व ख़ास थे। उनकी ख़ासियत यह भी थी कि हर ख़ासियत से परे थे। उन्हें भी इन ‘हायली पेड’ व सितारी चमक वाले कलाकारों ने खा डाला। अब तो जली बीड़ी को फिर-फिर जलाकर पीने वाले दर्जन भर उपन्यासों व तीन सौ कहानियों के सर्जक प्रेमचन्द भी नहीं रहे या दिन भर अगरबती का धन्धा करके शाम को बालगन्धर्व की कला-चादर की लाज रखने वाली ‘बेग़म बर्वे’ का कला-समर्पण भी न रहा। आज का कोई भी कलाकार अपने सीने पर हाथ रखकर कह दे कि वह ऐसा कुछ करने का हौसला लेकर कला-क्षेत्र में उतरता है।
आज जैसे पान-चाय वाले अपना जीवन-यापन करने के लिए दुकान खोलते है, जैसे सरकरी-ग़ैर सरकारी मुलाजिम घर-बार चलाने के लिए नौकरी करते हैं, उसी तरह आज कलाकार भी रोजी-रोटी के लिए कला के पेशे में उतरता है। जैसे पान-चाय वाला भाग के मुम्बई-कलकत्ता जाता है, वैसे ही सीख-सिखा कर कलाकार भी शहरों का रुख़ करता है। बड़ा बोनस यह कि सरकार उसके सीखने का खान-खर्च ही नहीं, दारू-सिगरेट के लिए वजीफा भी देती है। धन्धा चल निकला, तो पान-चाय वाले भी कोठी-कटरा बनवाते हैं, खेत-बारी खरीदते हैं, कलाकार का भी काम चल निकला, तो महँगे इलाकों में समुद्र किनारे बँगले, पहाड़ियों (वही हिल स्टेशन्स) पर फॉर्म हाउस, बड़ी वाली महँगी कारें खरीदता है। सो, दोनो के मन में तो अपने-अपने दर्ज़े का वही कीड़ा बैठा है बड़चो…!!
तो फर्क़ क्या है भाई…? वह तो ‘सूने कारबार, सुने सरकार’ के नारे-बैनर लेकर नहीं उतर रहा सड़क पर…!! और कलाकार का ‘नवनीत समाना’ वाला बड़ा कोमल मन होता, तो कोरोना पीड़ित यात्रा में मरने वाले मजदूरों के लिए भी बैनर लेकर निकलता!! मैंने तो मिल-हड़तालों का वह जमाना देखा है, जब मजदूरों के बच्चे जानवरों की तरह कचरे के ढेरों पर दाने बीन के खाते थे। फिर भी वे बैनर लेकर सरकार के सामने ‘सूनी मिलें, सुने सरकार’ का नारा नहीं गुँजाते थे। और सरकार आज ही थोड़े हजारी योजना का मखौल कर रही है, तब भी वह मिल मालिकों के हित में खुराकी (आधे महीने के खाने भर) के अग्रिम भुगतान पर समझौता करा देती थी।
इस तरह कला व रोज़गार की उत्पत्ति की प्रकृति और इरादे की प्रक्रिया तो एकदम समान है। फिर आज तो ‘आत्मनिर्भरता का सरकार-घोषित जमाना है। क्या उसमें सरकार के सामने हाथ न फैलाने की मंशा भी निहित नहीं है? और रोज़गारी वर्ग तो भूखे पेट रहकर या मरकर ही सही, आत्मनिर्भरता को जी रहा है। तथाकथित उदात्तता के बल अपना अधिकार जताकर भीख नहीं माँग रहा है। इधर कलाकरों के पास तो आसमानी ऊँचाई (स्काइ इज़ लिमिट) का बड़ा जलवा भी है। पूरी दुनिया में नाम रोशन होता है। इसके मुकाबले तो उन रोज़गारियों के पास कुछ नहीं है – मुट्ठी बाँधे आये थे, हाथ पसारे जायेंगे…। कोई जानेगा भी नहीं। लेकिन कलाकारों के साथ सलूक और उनके लिए नियत इनाम-ओ-अकराम (लखटकिये पद-पुरस्कार) बड़े हैं। उसी की जानिब से सोचें, तो अधिकार जताकर, नारे लगाकर सरकार से वसूली करने के मुकाबले आपसी सहकारिता वाला एक सदर रास्ता भी है कलाकारों के पास, जो उनकी आत्मनिर्भरता का राजद्वार खोल सकता है।
जितने कलाकार अपने सूने साज की मूक आवाज के नारे लगाते सड़कों पर सरकार के सामने नाच रहे हैं, उतनों को आत्मनिर्भर बनाने में सहज समर्थ उनके आका कलाकार अपने महलों में उसी कला के भरोसे सुख से सो रहे हैं। वे आम पूँजीपतियों से अलग कैसे और क्योंकर हैं? ‘समुझहिं खग खग ही कै भाषा’ के तहत क्या सड़कों पर खड़े खगों की भाषा का दर्द उन महलों वाले दर्दी (या बेदर्दी?) खगों तक नहीं पहुँच रहा है? वे क्यों नहीं इन हमपेशा साथियों के लिए आगे आते…? तब ख़म ठोंककर सरकार के साथ दो-दो हाथ नहीं, तो दो-दो बात कर सकते हैं कि इस कोरोना संकट में हम इन साथियों का, अपनी बिरादरी का योगक्षेम सँभाल रहे हैं, तुम उन कारबारियों का योगक्षेम सँभालो…। तब देश को भी लगे कि कुछ तो कला अभी शेष है इन कलाकरों में…ये कुछ तो अलग व ख़ास हैं सरकार से भी और आम आदमी से भी। आमीन…!!
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यह लेख मशहूर हिंदी साहित्कार और फिल्म व कला जगत के समीक्षक सत्यदेव त्रिपाठी से साभार प्राप्त हुआ है। आप उनसे ग्राम– सम्मौपुर, पत्रालय- इरनी (ठेकमा), जिला आज़मगढ़- उ.प्र.-276303/ मोबा. 9422077006 पर संपर्क कर सकते हैं।