देश में आजकल अन्ना की चर्चा है। हर ओर अन्ना ही अन्ना नजर आ रहे हैं। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ ने पूरे देश को अन्नामय कर दिया है। अन्ना के समर्थन में देश का एक बड़ा वर्ग सड़कों पर उतर आया है। कोई अनशन कर रहा है तो कोई गा-बजा कर अन्ना का साथ दे रहा है। कई लोग ऐसे भी हैं जो सड़कों पर प्रदर्शन तो नहीं कर रहे हैं लेकिन मुंह से अन्ना के साथ होने की बात कह रहे हैं। इन सब के बीच एक बात सामान्य है। सभी सालों से जिस थूक को घोंट रहे थे उसे जी भर के वहां थूक रहे हैं जहां थूकना चाह रहे हैं। वैचारिक रूप से अन्ना ने देश की ऐसी रग पर हाथ रखा है जिसकी ओर कोई देख भी ले तो दर्द उभर आता है। अन्ना ने उसी रग को दबा दिया है। जनता की वो भीड़ जो राजनीतिक रूप से लोकतंत्र का हिस्सा है चिल्ला रही है। ये भीड़ व्यवस्था के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त करने का यह मौका जाने नहीं देना चाहती है।
ऐसा नहीं है कि जो सड़कों पर निकल पा रहे हैं वही भड़ास निकाल पाने का संपूर्ण आनंद ले रहे हों। घरों में भी चर्चा होती है और व्यवस्था को कोसा जा रहा है। अन्ना और उनकी टीम का जन लोकपाल बिल इस देश को कुछ नया दे पायेगा या बिलों के बिल में कहीं खो जायेगा ये तो पता नहीं। लेकिन फिलहाल देश के हर उस नागरिक को अन्ना हजारे के नाम पर छूट है कि वो बदबूदार सिस्टम के प्रति नाराजगी जता सके।

