क्या होता है प्रोटोकॉल, जानते हैं आप? नहीं जानते न? बहुत सी लाशें हैं जो बिना प्रोटोकॉल के ही श्मशान तक पहुंच गईं।
यूं तो लाशों की बात लिखनी तो सबसे अंत में चाहिए थी लेकिन नथुनों में भरी इंसानी लाशों की गंध आपको रुकने नहीं देती तो कलम अपने आप सबसे पहले यही पंक्ति लिख देती है। कलम को भी शायद प्रोटोकॉल नहीं आता। 


आप जानते हैं लाशें कैसे जलाई जाती हैं? कभी किसी जलती चिता के पास खड़े होकर इंसानी लाश से उठती गंध को जाना है आपने? यही वो अंतिम एहसास होता है जो आपके अपने आपके साथ छोड़ जाते हैं। बिना किसी प्रोटोकॉल के। अच्छा आप इतना तो जानते ही होंगे कि लाशों का भी अपना सम्मान होता है। वही सम्मान जो हम उन्हें अनंत यात्रा पर विदा करने से पहले देते हैं। लेकिन आप ये भी जानते होंगे कि मौजूदा वक्त में वो सम्मान भी हम अपने अपनों को देना चाहते हैं उसमें भी ‘प्रोटोकॉल’ ही आड़े आता है। 
अच्छा बताइए, आपका कोई अपना ऑक्सीजन की कमी से तड़प रहा हो, तिल तिल कर मरने की तरफ बढ़ रहा हो तो आप कौन सा प्रोटोकॉल फॉलो करते हैं। या फिर कौन सा प्रोटोकॉल फॉलो करना चाहिए? अपने परिजन को गोद में लिए धीरे धीरे रोइए। आवाज तेज होगी तो प्रोटोकॉल टूट सकता है। आपको इस बात का ध्यान रखना होगा कि आपके रोने के दौरान कहीं सरकार की बुराई न मुंह से निकल जाए। आप सरकार से सवाल भी नहीं पूछ सकते हैं। प्रोटोकॉल के अन्तर्गत नहीं आता न ये। आप चाहें तो सिस्टम को घेर सकते हैं। और हां, आपको ये याद रखना होगा कि देश में न ऑक्सीजन की कमी है और न ही अस्पतालों में बेड्स की। एंबुलेंस को फोन मिलाएंगे तो फोन कटने से पहले वो आपके दरवाजे पर होगी। वेंटिलेटर तो इतने हैं कि गोदामों में भरे पड़े हैं। बाहर ही नहीं निकले। आप प्रोटोकॉल फॉलो करेंगे तो आपको ये सब दिखेगा।

अस्पतालों के बाहर एडमिट होने की राह देख रहे मरीज भी प्रोटोकॉल का फॉलो करें तो आधे तो अस्पताल के बाहर ही ठीक हो जाएंगे। तीमारदारों का भी प्रोटोकॉल के तहत सरकारों पर भरोसा बनाए रखना जरूरी हैं। सबको फटाफट ऑक्सीजन, वेंटिलेटर, रेमडिसिविर, सब मिल जाएगा। यही तो जादू है प्रोटोकॉल का। 

 हां एक और चीज, ‘सकारात्मकता’। पता नहीं सही वर्तनी लिख पाया हूं या नहीं लेकिन मुझे लगता है कि आप लोग समझ ही लेंगे। सकारात्मक… वही वाला सकारात्मक होने की जरूरत है जो होने के लिए सरकारें और कई न्यूज चैनल कह रहें हैं। वही न्यूज चैनल जो पिछले कुछ सालों में इतने सकारात्मक हो गए हैं श्मशान पर जलती चिताओं के बीच भी सकारात्मकता को इतनी खूबसूरती से निकाल लाते हैं कि लपटें भी ठंडी होकर जलने लगती हैं। यही तो सकारात्मकता की अबूझ पहेली है। अक्सर ये मुर्दानी सन्नाटे से चुनाव में जीत की दुंदुभी बजा देता है। न्यूज चैनलों के एकंर खुशी से झूम उठते है। अक्सर ये सकारात्मकता आल्हाद की पराकाष्ठा तक ले जाती है।

 तो क्या समझे आप? आपके घर में किसी को ऑक्सीजन की कमी हो, दवा न मिल रही हो, अस्पताल ले जाने के लिए एंबुलेंस न मिले, अस्पताल पहुंच गए तो अस्पताल में बेड न मिले और मरीज न बचे और श्मशान में जगह न मिले तो भी दो चीजों का पूरा ख्याल रखें, एक तो ‘प्रोटोकॉल’ का पूरा ध्यान रखें और सकारात्मक बने रहें। ऐसा आपको इसलिए भी करना है क्योंकि हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री यही चाहते हैं। आप समझ रहें है ना? वही प्रधानमंत्री जो अपनी मां से मिलने पहुंचते हैं तो चार पांच कैमरों का ‘प्रोटोकॉल’ फॉलो करते हैं। अब इस देश में ‘प्रोटोकॉल’ ही ऑक्सीजन है, बेड है, दवा है अस्पताल है। वाह ………….. वाह।।