सटीक तो नहीं पता है लेकिन शायद दुनिया में तीसरे या चौथे नंबर की अर्थवस्वस्था वाले
देश का अर्धसत्य यही है कि यहां अस्पताल के बाहर बारह
साल का एक बच्चा मर
जाता है लेकिन उसे इलाज नहीं मिल पाता है। मुझे ये भी
सटीक नहीं पता लेकिन
शायद दुनिया में पांचवे या छठे नंबर पर अरबपतियों वाले
देश में एक शख्स को
अपनी पत्नी का शव अपने कांधे पर लादकर
13 किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है और उसे एंबुलेंस नहीं मिल पाती। देश के
स्क्रैमजेट
 इंजन की तकनीक विकसित कर लेने का एक पहलु ये भी
है कि ट्रेन एक्सीडेंट में मरी एक वृद्धा का शव पोस्टमार्टम हाउस तक पहुंचाने के
लिए उसकी लाश की हड्डियों को पहले तोड़ा जाता है और फिर गठरी बना कर पोस्टमार्टम
के लिए भेजा जाता है।
यकीनी तौर पर देश में ये मुद्दे बहस के लिए पसंद
ही नहीं किए जाते। हमारी संवेदनाएं ऐसे मुद्दों पर तब तक नहीं जागती जब तक ऐसी कोई
घटना न हो जाए और वो टीवी पर न दिए जाए। ये बात दीगर है कि हम ऐसी हर बहस के बीच
में इस बात को स्वीकार करते हैं कि ऐसी न जाने कितनी घटनाएं होती हैं और हमें पता
नहीं चलता।
देश में स्वास्थ सेवाओं के हाल बेहद खराब हैं।
देश की अस्सी फीसदी जनता भगवान भरोसे चल रही है। आंकड़े बताते हैं कि भारत स्वास्थ
पर अपनी जीडीपी का एक फीसदी के आसपास खर्च करता है। अमेरिका जैसे देशों में ये
खर्च सत्रह फीसदी के आसपास रहता है। आमतौर पर हम अक्सर प्रगति के पैमाने अमेरिका
जैसे देशों को देखकर तय करते हैं लेकिन स्वास्थय सेवाओं में ऐसा नहीं है। हालांकि इस
बात का कोई मेल नहीं है लेकिन एक सत्य ये भी है कि भारत दुनिया में हथियारों का
सबसे बड़ा आयातक देश है। दुनिया के 14 फीसदी हथियार भारत ही खरीदता है। यानि
हथियारों की इस देश में कोई कमी नहीं है लेकिन दवाओं की कमी से मरने वालों का
आंकड़ा निकालना भी मुश्किल है।
देश की शहरी आबादी के लिए डोमिनोज और मैकडी का
पिज्जा एक फोन कॉल पर उपलब्ध है लेकिन देश की 90 फीसदी ग्रामीण आबादी को मूलभूत
चिकित्सा सेवा के लिए भी कम से कम आठ किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है। कहने
सुनने के लिए बहुतेरी बातें हैं पर मानों हर बार यही लगता है कि बहस लंबी हो गई अब
बंद करो। आप इस मसले पर अधिक पढ़ना नहीं चाहते और मेरा लिखना भी मुश्किल है। लीजिए
बंद कर रहा हूं तब तक, जब तक फिर कोई दाना मांझी न मिले। आइए जश्न मनाएं इस बीमार
विकास का।

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