चुप रहना हमने कब सीखा? तब जब हमने केंद्र में अपार बहुमत की सरकार बनाई या फिर तब जब हमने यूपी में एक आक्रामक हिंदुत्व की छवि वाले शख्स को सत्ता का ताज पहनते देखा?
हमने चुप्पियों को सहूलियतों के ढांचे में उतार लिया, हम तय करते हैं कि किन मुद्दों पर हमें बोलना होगा, फिर भले ही हमारे सहूलियतें राजनीतिक आईने में फिट बैठते अक्स सी क्यों न हों।
मुजफ्फरनगर से लगायत देवरिया तक नारी संरक्षण गृहों में बच्चियों को जबरन देह व्यापार में उतारा जाता है और सभ्य होने का दंभ रखने वाला समाज चुप रहता है। चुप्पी को सहेज कर रखने वाला ये समाज कब आक्रोशित होगा ये तय नहीं किया जा सकता।
छोटी छोटी बच्चियां और देह व्यापार से जुड़े नर पिशाच। सोचिए तो कलेजा मुंह को आ जाए। एक छोटी बच्ची जाती है और अपने हाथों के इशारे से उस जमीन की ओर इशारा करती है जहां अपना बचपना, अपनी किशोरावस्था, अपनी जवानी की दहलीज पर खड़ी लड़की को देह व्यापार में न जाने के चलते मार कर दफना दिया जाता है।
जिस बालिका संरक्षण गृह को बंद करने के आदेश के दो सालों बाद तक ये संरक्षण गृह चलता रहा तो क्यों न ये माना जाए कि ये राजनीतिक संरक्षण के बिना नहीं हो सकता। शिकायतों के बाद भी कार्रवाई नहीं होती। कारें आती और जाती रहीं, बच्चियां सिसकती रहीं, सिमटती रहीं, बिखरतीं रहीं लेकिन सत्ता तो भगवा थी लिहाजा उसकी जिम्मेदारी बनती नहीं थी। समूचा सिस्टम सोया रहा, सालों तक सोया रहा, लेकिन कौन कहे। फिर सरकारों की प्राथमिकताओं में बच्चियों की सुरक्षा होती भी निर्भया फंड बनाने भर तक ही है। सरकारें आपके बैंक अकाउंट के लेनदेन पर नजर रख सकती हैं, आपके मोबाइल के नेटवर्क और टैरिफ पर नजर रख सकती हैं बस बच्चियों पर नहीं रख सकती। फिर सरकारों से कौन पूछे कि पूर्व मुख्यमंत्रियों के घरों में लगे टोंटियों और टाइल्स की तलाश में लगा सिस्टम न बच्चों को ऑक्सीजन से मरते देख पाया न बच्चियों को बड़ी गाड़ियों में जाते देख पाया। कौन पूछे कि बच्चियों के जिस्म से रूह नोंचते वो लोग कैसे खुलेआम आते जाते रहे और किसी को पता क्यों नहीं चला। कौन पूछे कि एक परिसर में 40 से अधिक बच्चियां रखीं जाती हैं, हर शाम उन्हें जिस्म फरोशी के लिए जबरन भेजा जाता है फिर भी सिस्टम क्यों नहीं पता लगा पाया।
पता नहीं वो लड़की किस मिट्टी की रही होगी जो भाग कर पुलिस के पास पहुंच गई। फिर भी चुप्पी तो रखनी ही होगी।
चुप रहिए, बिल्कुल चुप, क्या हुआ बच्चियां हमारे ही समाज का हिस्सा हैं। चुप्पियां भी तो हमारी हैं। फिर भारत को बदलना भी तो है।