कितना विभत्स हो गया है हमारा समाज। कितने हिस्सों में बंट गया है। हर सिरा मानों एक नई ऐंठन के साथ ताने और बाने के आपसी सौहार्द को खत्म कर खुद को आजाद करना चाहता है। पूरा देश हिस्सों में रिस रहा है। मातृ शक्ति की दुहाई देने वाले समाज में बेटियों को खुलेआम बलात्कार की धमकी दी जाती है और हम मुंह बंद किए बैठे रहतें हैं। थूकना चाहिए ऐसे समाज पर जो अपनी ही बेटियों के बलात्कार की धमकियों को पार्टियों में बांट लेता है। फिर धीरे धीरे हम ये तय करने लगते हैं कि धमकी का वक्त क्या था और धमकी देने वाला किस पार्टी का था। इसके बाद जिसे धमकी मिली उसका बैकग्राउंड क्या है। कहीं ऐसा तो नहीं कि धमकी पाने वाली का चरित्र ही ठीक न हो।
तरक्की की ये तस्वीर लाल किले पर टांगी जाएगी क्या? या फिर राष्ट्रपति भवन के संग्रहालय में विदेशी मेहमानों को दिखाने के लिए फोकसिंग लाइटों के बीच सजा कर रख दी जाएगी। आनी वाली नस्लों को ये बताया जाएगा कि देखो इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में ही हम यहां तक पहुंच गए थे कि बेटी बचाओ के नारे के साथ ही हम बलात्कार की धमकियों को भी वायरल करने लगे।
देश के उच्च शिक्षा संस्थानों में पढ़ने वाला छात्र समुदाय ऐसी ओछी सोच कैसे रख सकता है। स्वाभाविक तौर पर किसी उच्च शिक्षा संस्थान में ऐसे माहौल की कल्पना भी नहीं की जा सकती। शिक्षा संस्थानों में राजनीतिक ककहरा सीखने को मिलता है और राजनीतिक लड़ाइयां होती रहती हैं। लेकिन इन लड़ाइयों में भी सैद्धांतिक मसलों पर बहस होती है। नारी समाज के लिए रेप की धमकियों का प्रयोग तो पूर्व में कहीं नहीं सुना। रेप की धमकी और राष्ट्रवाद का मेल भी अजीब स्थितियां पैदा करता है। क्या कोई लड़की देशद्रोही भी है तो उसका रेप किया जा सकता है? शायद कानून की कुछ नई किताबें लिखीं जा रहीं हैं।
देश धीरे धीरे नहीं बल्कि तेजी से ऐसी सभ्यता की ओर बढ़ता दिख रहा है जहां राजनीतिक सिद्धांतों के लिए जगह कम पड़ चुकी है। धमकियां हावी होने लगीं हैं। ऐसा शायद तब भी नहीं रहा होगा जब इंसान सभ्य भी नहीं था। ये उस दौर में पहुंचना जैसा होगा जिसे हमने शायद अब तक देखा ही नहीं। देखना भी नहीं था।
वैसे देश में लिंगानुपात में कुछ सुधार दिख रहा है। हरियाणा जैसे राज्यों में भी अब लिंगानुपात के सुधरने की उम्मीद है। हम बेटी को बचान लगे हैं। उन्हें पैदा करेंगे फिर बेटे तो हैं ही। वो बलात्कार की धमकियां देंगे। हम चुप रहेंगे। पार्टियों का मसला मान कर आंखों की पुतलियां घुमा लेंगे। बहुत हुआ तो एक बार जन गण मन गा लेंगे।